Monday 29 July 2013

मैंने दादा को देखा नहीं

मैंने दादा को देखा नहीं 
बहुत पुराना ज़ंग लगा 
एक संदूक दादा का 
मैंने बहुत संभल के रखा है 
जिसमे उनकी कलम है 
दवात , पुराने कागज़
जो अब पीले होगये है
लेकिन मेरे लिए
आज भी बेशकीमती है ,

मैंने दादा को देखा नहीं
लेकिन उन तमाम चीजों को
जब भी छूता हूँ
उन्हें महसूस कर लेता हूँ
संदूक में एक बहुत
भीनी भीनी सी महक
आती है जो माज़ी
के दौर की याद दिलाती है ,

मैंने दादा को देखा नहीं
उनके लिखे हुए उर्दू
के लफ्ज़ जब भी छूता हूँ
अपनी उंगलियों में
उनके एहसास को
महसूस करता हूँ ,

मैंने दादा को देखा नहीं
उनके संदूक में एक टोपी है
में पेहेन के उसे नमाज़ पड़ लेता हूँ
एक ऐनक है जो कभी लगाके
खुदको बुज़ुर्ग समझ लेता हूँ ,

मैंने दादा को देखा नहीं
कुछ पुराने ख़त है
उन्हें पड़ के गुफ्तगू
दादा से करलेता हूँ

मैंने दादा को देखा नहीं
पर याद उन्हें हर
रोज़ "जलाल " कर लेता हूँ |

No comments:

Post a Comment