Tuesday 2 December 2014

दिसम्बर तुम क्यों वापिस आ जाते हो

दिसम्बर तुम क्यों वापिस आ जाते हो
दिसम्बर इतहास में तुम्हारी
तारीखे बदनाम क्यों हैं
तुम हर साल क्यों 
इन तारीखों के साथ
वापिस आ जाते हो
वो तीन दिसम्बर की काली रात
जिसमे हजारों, लाखों मासूमो
की चीखें जिंदा हैं
वो बहते आंसू
अपनों को खोने का ग़म
वो तीन तारीख की
काली रात जब
एक शहर दर्द की
पीड़ा से गुज़रा था
वो रोते बिलखते बच्चे
जिनकी आवाज़ उनके साथ दफ़न
नहीं हुई, जिनके आंसू
आज भी इस तारिख
को नम रखते हैं
दिसम्बर तुम क्यों वापिस आ जाते हो
वो छ: दिसम्बर को बाबरी मस्जिद
का विन्ध्वंस, वो फिर लाखो
लोगों का क़त्ल ऐ आम
वो जलते हुए घर
वो नफरतों का दौर
तुमने इन सब को देखा
तुम फिर भी हर साल
ज़ख्मो को हरा करने
वापिस आ जाते हो
दिसम्बर तुम क्यों वापिस आ जाते हो
वो 16 तारिख जिस रात
सरे आम एक लड़की की
इस्मत का तमाशा बना
उसके साथ न जाने कितनी
दफा इस देश की इज्ज़त
शर्मिंदा हुई, वो लोगों
का आक्रोश, वो गुस्सा
जिसका असर आज तक
तुम्हारी तारीखों में
जिंदा है....
दिसम्बर तुम क्यों वापिस आ जाते हो
वो 26 तारिख की सुनामी
वो मासूमो का नींद से
दोबारा कभी न उठना
वो लाखों घरो का उजड़ना
वो अनकहीं दस्तानो का दफ़न होना
जो शुरू भी न हुई थी
तुमने ये सब खुद में कैसे
जिंदा रखा है
तुम क्यों हर साल ये
दर्द लिए वापिस आ जाते हो
तुमने तारीखों को क्यूँ
बदनाम किया......
अलतमश

Tuesday 10 December 2013

तेरे ख़त ....


मेरे कमरे के एक कोने में 

बरसो से एक किताब में 
तेरे लिखे ख़त सांसे भर रहे है 
उस किताब पे जमी गर्द 
हटाने की हिम्मत नहीं होती
जब जब हाथ रखता हूँ 
उस किताब के उस पन्ने पे 
जिसपे तेरा नाम लिखा है 
दिल में एक खलिश उठती है 

महसूस नहीं होता आँखों से 
अश्क कब निकल जाते है 
लेकिन तेरे ख़त आज भी 
मेरी किताब में जिंदा है | 

तुम्हारी याद के आजाने के बाद हम 
लफ्जों के सहारे दिल को बहलाते है |

अलतमश

Monday 29 July 2013

मैंने दादा को देखा नहीं

मैंने दादा को देखा नहीं 
बहुत पुराना ज़ंग लगा 
एक संदूक दादा का 
मैंने बहुत संभल के रखा है 
जिसमे उनकी कलम है 
दवात , पुराने कागज़
जो अब पीले होगये है
लेकिन मेरे लिए
आज भी बेशकीमती है ,

मैंने दादा को देखा नहीं
लेकिन उन तमाम चीजों को
जब भी छूता हूँ
उन्हें महसूस कर लेता हूँ
संदूक में एक बहुत
भीनी भीनी सी महक
आती है जो माज़ी
के दौर की याद दिलाती है ,

मैंने दादा को देखा नहीं
उनके लिखे हुए उर्दू
के लफ्ज़ जब भी छूता हूँ
अपनी उंगलियों में
उनके एहसास को
महसूस करता हूँ ,

मैंने दादा को देखा नहीं
उनके संदूक में एक टोपी है
में पेहेन के उसे नमाज़ पड़ लेता हूँ
एक ऐनक है जो कभी लगाके
खुदको बुज़ुर्ग समझ लेता हूँ ,

मैंने दादा को देखा नहीं
कुछ पुराने ख़त है
उन्हें पड़ के गुफ्तगू
दादा से करलेता हूँ

मैंने दादा को देखा नहीं
पर याद उन्हें हर
रोज़ "जलाल " कर लेता हूँ |

Wednesday 5 June 2013

BARSAAT KE DIN

तेरे दिए हुए गुलाब आज भी 
किताब मेंरखे मिल जाते है 
काश इसी तरह तुझे भी मैं 
ऐसे संभाल के रख पाता 
अपनी ज़िन्दगी में
आज बारिश ने बहुत कुछ 
याद दिला दिया गुज़रा 
वक़्त तेरे साथ सावन के महीने का ....

तुम जुल्फों को जब बारिश में 
खोलती थी तुम्हारी भीगी 
हुई ज़ुल्फे मानो ऐसी 
लगती जैसे किसी 
पर्वत से बहता झरना हो 
तुम्हारी खामदार ज़ुल्फे जिनकी 
छाव में ता उम्र ज़िन्दगी 
गुज़ार ने को दिल चाहे ...

बारिश की बुँदे तुम्हारे 
संगे मर मर से बने 
हुस्न को छूती 
कुछ यू चमकती 
जैसे तुम्हे छूते ही 
हीरे में तब्दील हो गयी हो ...

गाल तुम्हारे जैसे 
खिले हुए गुलाब की 
पंखुरी हो |

बारिश ने तुम्हारी यादों 
में भिगा दिया मुझे ...

मोहब्बत के दिनों में 
लिखी हुई कुछ पंक्तिया जिनका 
अब कोई मोल नहीं है मेरी 
किताब में क़ैद थी आज यहाँ लिख दी |

: अलतमश

Tuesday 21 May 2013

Bargad Ka Ped

मैं बरगद की तलाश में निकला था 
लेकिन मुझे बबूल बहुत मिले
कुछ नीम भी थे 
साथ में जामुन के दरख़्त भी थे 
गर्मी का मोसम है
आम की टेहेनिया भी झुकी नज़र आई 
लेकिन कहीं भी बरगद का दरख़्त नज़र नहीं आया 
जंगल शहर में कब तब्दील हुआ
किसी को मालूम न था 
बस रस्ते बता रहे थे मैं शहर 
की राह पे हूँ 
क्युकी गाँव के रस्ते
तो आजतक कच्चे है
अब सारे दरख़्त उजड़ गए
लम्बे लम्बे मकान खड़े है दोनों सिम्त
कोई भी झुला अब नहीं दिखता
अब शहर में बरगद की छाव नहीं मिलती 
गाँव याद बहुत आता है
लेकिन घर की मजबूरियों ने शहर की
ज़ंजीर बनाके पैरो में  बेड़िया डाल दी है 
अलतमश

Monday 20 May 2013

Sarhad


वहा कभी सकरी गलियारे थे ,
जहा कोपल खिला करते थे ,

हरे भरे खेत खलियान थे ,
नदिया भी बहा करती थी ,
आज़ादी की लहर थी ,
खुशियों का ज़माना था ,
फिर कुछ सत्ता के दीवानों ने ,
कागज़ के पन्नो पे नफरत की
सिहाई से लकीरों की सरहद बनाई ,
लोगो की प्यास भुजाने को खून की नदिया बहाई,
सिंदूर की लाली का रंग सफेद होगया ,
माँ की कोख उजड़ी बेटा शहीद होगया |

अलतमश

Friday 12 April 2013

Hum

वो बिराहमण की बेटी 
तू इब्न ऐ ज़ाहिद
उन्सियत देखती नहीं धर्म वाइज़
ख़ुशी थी मोहल्ले मैं सब एक थे
हुई उडू जब से उनके दो से एक होने की खबर आई (उडू = दुश्मनी )
ये आगाज़ ऐ मोहब्बत है या दुश्मनी
तुम्हारे जाने से जो बला मोहल्ले मैं आई
दरवाजों पे नश्तर के निशाँ की खबर
आखबारो  मैं आज  के आई
सन्नाटा परेसे हुए सबा भी खामोश आई
खीच गयी लकीरे भी गलियों के दर्मिया
जबसे उनकी शादी की खबर आई
अब ना  खेलते है बच्चे उस गली के और इस गली के
मौला जाने बचपन पे ये कैसी सजा आई |

अलतमश